आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी
आज देश में फिर से हिन्दुत्व के मुद्दों पर विचारधाराएं टकराने लगी हैं। इस टकराहट से कभी-कभी ऩफरत की चिंगारी शोले का रूप धारण कर लेती है। ऐसे में आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी का हिन्दुत्व पर दिया गया व्याख्यान कारगर है। आज के समय में यह आवश्यक है कि हिन्दुत्व को सही ढंग से हिन्दू भी जाने और दूसरे धर्मावलंबी भी। संपादक:
समानधर्मा दोस्तो! आज मैं अपने आपको आपलोगों के सम्मुख पाकर धन्य मानने लगा हूं। आपने इस अभूतपूर्व सम्मेलन का दायित्व देकर मझे धन्य किया है। मैं अपने उसूल और मिज़ाज के मुताबि़क इ़कबाल के शब्दों में एक शेर कहना चाहूंगा-
कहता हूं वही बात के समझा हूं जिसे ह़क
न अब्लहे मस्जिद हूं न तहज़ीब का फ़रज़न्द
अपने भी ख़फ़ा मुझसे हैं बेगाने भी ना़खुश
मैं ज़हरे हलाहल को कभी कह न सका कन्द
‘इ़कबाल’ मेरा पसंदीदा शायर ही नहीं; वे मेरे गुरू भी हैं। जबकि उनका निधन मेरे जन्म के चार साल पूर्व ही हो चुका था। उस्ताद इसलिए कि मैंने ‘हिन्दू’ और ‘हिन्दुस्तान’ को सबसे पहले इ़कबाल की रचनाओं से ही समझा:-
है राम के वजूद पे हिन्दुस्ताँ को नाज़
अहले नज़र समझते हैं उनको इमामे हिन्द
कृष्ण के फलसफे पर नाज़ करने वाला इ़कबाल आसमान पर ‘गौतम बुद्ध’ से मुला़कात करता है। एक और महापुरुष से उनकी मुला़कात होती है जिनका नाम वे ‘जहांदोस्त’ बतलाते हैं। फिर वे एक के बारे में फारसी में इस तरह से कहते हैं:-
मारे सफेद हल़्काज़न अर्थात उनकी गर्दन में उजला सांप लिपटा था और बड़ी ताज़ीम के साथ ज़िक्र करते हैं। इशारा ‘शिवजी’ की तरफ है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जब इक़बाल ने जहाँदोस्त का इस्तेमाल ‘विश्वामित्र’ के लिए किया। आज भी दुर्भाग्य से हिन्दी के ऐसे बहुत इक़बाल ने इशारा करके उन विद्वानों को बताना चाहा होगा कि विश्वामित्र का संधि विच्छेद विश्वा:+मित्र है। इतना महान महर्षि जो आज भी हर गांव, हर क़स्बे और शहर में ‘सप्तर्षि मण्डल’ (उड़न खटोला) के रूप में वर्तमान और विद्यमान है, वह विश्व का मित्र होगा शत्रु नहीं? इक़बाल का एक यादगार सब़क है:-
पत्थर की मूरतों को समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक़े वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।
उनका ‘भारत के वासियों की मुक्ति प्रीति में है’ अपनी मिसाल आप है।
मित्रो! दिनकर की धरती पर और ख़ुसूसन दिनकर भवन में इ़कबाल की याद आ जाना एक ़िफतरी चीज़ है। इ़कबाल दिनकर के बहुत ही प्रिय और मान्य कवि रहे हैं। आज अगर यहां दिनकर होते तो मेरे द्वारा मात्र इ़कबाल कहे जाने पर वे बिगड़ सकते थे। मुझे डांट भी सुननी पड़ सकती थी। वे सिर्फ इ़कबाल कहने पर आपत्ति करते हुए कहते थे कि अरे भाई हज़रत इ़कबाल नहीं बोल सकते तो कम से कम सर इ़कबाल तो कहा करो। आज भी और अब भी वैसे लोग गवाह की शक़्ल में बेगूसराय में मौजूद हैं। मुझे भी दो बार काव्य पाठ का उनके साथ मौ़का मिला है। दिनकर एक अच्छे हिन्दू थे और उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में हिन्दू को टच किया है।
मेरी ज़िंदगी का दूसरा दौर शुरू हुआ रोज़ी-रोटी की तलाश से और उसके लिए मैं ज़िला मुख्यालय मुंगेर पहुंचा। गांव के ही एक हिन्दू जो कायस्थ परिवार से संबंध रखते थे उनका ही पेइंग गेस्ट बना। वह ज़माना आज से भिन्न था। उनके यहां कुछ बुजुर्ग लोग भी आया करते थे, जो हमारे गांव से संबंधित थे और मुझे पहचानते थे। उन लोगों को जब मेरे बारे में पता चलता तो स्नेहपूर्वक परिवार का कुशल पूछते। बाद में मुझे पता चला कि आने वाले बुजुर्ग प्राय: मेरे नाना के शिष्य हुआ करते थे, जिन्होंने उनसे फ़ारसी की तालीम ली थी। मुझे उन्हीं दिनों पता चला कि हिन्दुओं में गुरु का कितना बड़ा सम्मान है और उनके उत्तराधिकारियों का भी कितना ख़्याल रखा जाता है।
वह 1959 ई. का ज़माना था। नौकरी की तलाश में मुंगेर में रहना था और कुछ लिखने भी लगा था। वहां से नियमित एक साप्ताहिक पत्रिका ‘दलित मित्र’ प्रकाशित होती थी। मेरी पहली रचना ़गालिब की ज़मीन पर-
कोई उम्मीद बर नहीं आती
नौकरी की ख़बर नहीं आती
इन्टरव्यू से जान छूटने की
कोई सूरत नज़र नहीं आती
उसी पत्रिका में छपी थी। मैं नियमित श्रीकृष्णा सेवा सदन पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने के लिए जाता। धीरे-धीरे हिन्दू दोस्तों की संख्या काफी हो गई। लेकिन मुझे तलाश थी एक ऐसे आदमी की जिसके सहारे मैं ऊपर उठ सकूं। मैं उस वक़्त भी महसूस कर रहा था और आज भी महसूस करता हूं कि पवन पुत्र हनुमान तमाम गुणों से परिपूर्ण थे फिर भी उन्हें राम मुद्रिका की ज़रूरत पड़ी थी। इसलिए मैंने राब्ता क़ायम किया ज़िला के और ख़ासकर उस शहर के मशहूर साहित्यकार प्रो. शिव चन्द्र प्रताप जी से। फिर मेरी अच्छी पहचान बनने लगी।
उन्हीं दिनों सूचना मिली कि मुंगेर टाउन हॉल में एक विराट कवि सम्मेलन होने जा रहा है जिसमें कविवर गोपाल सिंह नेपाली भी पधार रहे हैं। कवि सम्मेलन में श्रोता के रूप में मैं भी शामिल हुआ-
इधर मेघ छाये उधर मोर निकले
मेरे पिया तो जनम चोर निकले
फिर-
एक चाँद सी मेरी दुल्हन को
नौ लाख कहारों ने लूटा
की स्वर लहरी पूरे माहौल को झूमने को मजबूर कर गई। कुछ ़खास लोगों के इसरार पर फिर उन्होंने ‘यह मेरा हिन्दुस्तान है’ पढ़ना शुरू किया। वह बहुत लंबी और जीवन्त कविता थी। अंतिम पंक्ति की उपादेयता, उसकी गुणवत्ता और सार्थकता मैं कभी भूल नहीं सकूंगा। जब कभी किसी उदार हिन्दू को देखता हूं तो वह पंक्ति मुझे याद आ जाती है-
हिन्दूवासी इस धरती के
मैया समझे गाय को
विश्वास अटल इनपर उनका है
धर्म समझते न्याय को
बलवान डरे धनवान डरे
सुनकर दुखियों की हाय को
शान हिमालय से ऊंची
दिल बच्चों सा नादान है
यह मेरा हिन्दुस्तान है
मेरा यह कहना अक्षरश: सत्य होगा कि डॉ. इक़बाल और गोपाल सिंह नेपाली की रचनाओं को पढ़कर और सुनकर हिन्दुत्व को समझने और परखने का विचार मेरे मन में आया। समय मैंने लाया नहीं ख़ुद आया और समझने और परखने का मौक़ा मिला।
बेगूसराय के ज़िला होने के बाद यहां का साहित्यिक भाग्य चमका। यहां के प्रथम समाहर्ता श्री मन्त्रेश्वर झा भाषा और साहित्य दोनों के प्रकांड विद्वान थे। उनकी कोशिशों से कवि सम्मेलनों का तांता सा लग गया। सम्मेलन अलग-अलग स्थानों पर समय-समय पर होने लगे जिसमें हिन्दुओं का सान्ध्यि ही अधिक रहा।
‘वसुधैव कुटुम्वकम’ के संदेशवाहक भाइयो! 1975-76 में मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला स्कूल के प्रांगण में विद्यापति पर्व समारोह का विशाल आयोजन हुआ। मैं भी उसमें आमंत्रित था। पूरे भारत के चुने हुए हिन्दू विद्वान वहां मौजूद थे। विचार गोष्ठि के पश्चात दिन के खाने का इंतज़ाम हुआ और प्रबंध कुछ इस तरह का कि एक ही बार में तमाम लोग खा लें। पंक्तियां भी बड़ी लम्बी थी। उस भोजन स्थल में किनारे कुर्सी और टेबुल का इन्तज़ाम एक के लिए एक जगह था। डॉ. श्रीमती अणिमा सिंहा (कलकत्ता विश्वविद्यालय) ने पूछा कि यहां कुर्सी-टेबुल किसलिए है? आयोजक ने मेरी तरफ इशारा किया। इसके लिए डॉ. अणिमा और काफी लोग आयोजक पर बरस पड़े। लब्बोलबाब एक ही था कि मुसलमान को बुलाया क्यों और बुलाया तो समान रूप से एक पांति में क्यों नहीं खिला रहे हैं? अन्तिम फैसला था, कुर्सी हटाई जाए और कुर्सी हटाई गई। मैं सकुचाया भी पर लोगों ने मेरी बात नहीं मानी। और मैथिली के विख्यात कवि किरणजी ने हाथ पकड़ कर अपने साथ बिठा लिया। सच कहता हूं उस रोज़ मुझे इ़कबाल और नेपाली की पंक्तियां-
भारत के वासियों की मुक्ति प्रीति में है और-
शान हिमालय से ऊंची
दिल बच्चों सा नादान है
याद आईं।
उस ज़माने में हिन्दुत्व पर ग़ौर करने के बाद जो मैंने समझा वह यह है कि भगवान को मानने वाला भी हिन्दू, न मानने वाला भी हिन्दू। आस्तिक भी हिन्दू, नास्तिक भी हिन्दू। साकार मानने वाला भी हिन्दू, निराकार मानने वाला भी हिन्दू। व्रह्मा, विष्णु, महेश तीन भगवानों की अराधना करने वाला भी हिन्दू और एक ‘प्रजापति’का गुण-गान करने वाला भी हिन्दू। राम को मानने वाला भी हिन्दू, न मानने वाला भी हिन्दू। कृष्णा का पक्षधर भी हिन्दू, विरोधी भी हिन्दू। टीक और जनेऊ रखने वाला भी हिन्दू, न रखने वाला भी हिन्दू। शवदाह करने वाला भी हिन्दू और दफन करने वाला भी हिन्दू। ‘मनुस्मृति’ को हिन्दू कोड मानने वाला भी हिन्दू, उसे हिन्दू धर्म का अपमान कहने वाला भी हिन्दू। तुलसी रामायण को अक्षरश: सत्य मानने वाला भी हिन्दू, और ‘ढोल, गंवार, शुद्र पशु नारी’ वाक्य पर मातम करने वाला भी हिन्दू। रामायण का नियमित पाठ करने वाली महिला भी हिन्दू और ‘अवगुण आठ सदा उर रहहिं’ पर हंगामा मचाने वाली भी हिन्दू। राम से शिक्षा लेने वाला भी हिन्दू और रावण से शिक्षा लेने वाला भी हिन्दू। राम भक्त भी हिन्दू, रावण भक्त भी हिन्दू। वर्णाश्रम का पक्षधर भी हिन्दू और विरोधी भी हिन्दू। सुमित्रानन्दन ‘पन्त’ से राम का भारत में कोई अवदान नहीं कहने वाले आचार्य रजनीश भी हिन्दू। कवि बालकृष्ण शर्मा नवीन से ‘रामलिंगम्’ का यह कहना कि हमलोगों के आराध्य रावण हैं राम नहीं। अर्थात अपने नाम में ‘राम’ रखकर भी विरोध करने वाला हिन्दू। यह इस बात का एक ठोस प्रमाण है-वह सब हिन्दू हैं जो ़खुद को हिन्दू कहता है। बहनो! मुझे एक बात याद आ रही है। बचपन में मैं अपने परिवार वालों के साथ बेगूसराय से पूरब कहीं ट्रेन से सफर कर रहा था। कुछ दूर जाने के बाद एक जवान औरत हमलोगों के डब्बे में आकर एक किनारे में बैठ गई। गाड़ी खुली तो औरतों में चेमी गोइयां शुरू हुईं-
‘वह जवान औरत अकेले सफर कर रही है, कोई मर्द उसके साथ नहीं है, आ़िखर क्या मामला है?’’ इसपर एक औरत बोली-‘हिन्दू होगी?’
इस बात पर एक बूढ़ी मुसलमान औरत ने डांटा-‘‘हिन्दू कैसे होगी? देखती नहीं हो उसके कान छेदे हुए हैं? वह मुसलमान है।’’
अगर उक्त परिभाषा की रौशनी में सोचा जाये तो हिन्दू औरत का आज मिलना दुलर्भ हो जाएगा। यह हिन्दू धर्म का उदार, कटुतारहित सुधरावादी धर्म है। सावधान! इसे अवसरवादिता नहीं कही जाय। यह ़कौम कभी अवसरवादी नहीं रही है। हां! धर्म से दूर हटने के बाद हमारे हिन्दू भाई ‘वाद’ से काफी सट गये हैं।
यह विशाल संसार मुख्य रूप से चार धर्मों का है। वैदिक धर्म, यहूदी धर्म, अंग्रेज़ धर्म और इस्लाम धर्म। यहूदी धर्म हज़रत मूसा के समय से अंग्रेज़ धर्म हज़रत ईसा के समय से और इस्लाम धर्म हज़रत मुहम्मद के समय से है। यह सच है कि वैदिक धर्म अर्थात हिन्दू धर्म के बारे में इतनी आसानी से कह देना मुश्किल है क्योंकि यह धर्म तमाम धर्मों से काफी पुराना धर्म है। पं. दयानन्द सरस्वती के अनुसार- ‘संसार एक अरब नौ करोड़ साल पुराना है और वही वेदों का ज़माना है।’ यह धर्म सनातन धर्म है और सनातन का एक अर्थ डायरेक्ट भी होता है अर्थात साक्षात ईश्वर के निर्देश पर ईश्वरीय ग्रंथ और ईश्वरीय धर्म।
क्या इसके बाद भी इसकी वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता पर कहीं से किसी को एतराज़ है?
‘लूइस रेणु’ वेद को 1500 से 1200 ई. पू. बताते हैं, जिसका समर्थन पश्चिमी विद्वान भी करते हैं। भारत में आर्यों का आगमन काल ए ब्राउन के नज़दी़क 2000 ई. पू. है।
बहुत से लोग हिन्दू धर्म को धर्म नहीं मानते हैं। उनकी दलील है कि इसका पवर्तक कोई नहीं है। साधना का नियत कोई एक क्षेत्र नहीं है। पं. जवाहर लाल नेहरू भी इसे धर्म नहीं मानते, मगर इतना ज़रूर कहते हैं कि जिओ और जीने दो इसका लक्ष्य है।
हिन्दू धर्म है और इसके नियम-़कानून भी हैं। मानना न मानना तमाम धर्मों में है। अगर धर्म नहीं होता तो श्रुति, स्मृति, भागवत गीता, पुरान, उपनिषद, रामायण, महाभारत की क्या ज़रूरत थी? यह अलग बात है कि आज तमाम ग्रंथों के बताए गए रास्ते पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बहुत से मामलात कठिन भी हैं और आज के परिवेश में अनुपयोगी और त्याज्य भी जो लचकदार धर्म की ख़ुसूसियतों भी हैं जैसे-
मां-बाप की दौलत पर सिर्फ बड़े बेटे का ही अधिकार होगा। दूसरे भाई पैसे लेकर गुज़ारा करेंगे। हत्या का दंड व्राहम्णों को न दिया जाय, उसके केश काट दिए जायें। राजा व्राहम्ण की हत्या का विचार तक न करे फिर क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के लिए दूसरे-दूसरे क़ानून।
औरतों के बारे में ऋग्वेद में कुछ इस तरह से है-
’. औरतों के साथ मुहब्बत नहीं हो सकती।
’. औरत संयम हीन होती है।
’. लड़की बाप की संपत्ति की वारिस नहीं होगी
’. पत्नी, पति की संपत्ति बेच नहीं सकती है।
’. जिस लड़की का भाई न हो उसका विवाह न किया जाय। आदि-आदि।
वैसी अनेक बातें हैं और उसे धर्म सिद्धांत से हटा देना धर्म की कमज़ोरी नहीं अपितु व्यावहारिता है। ‘निरोध’ के ज़माने में ‘नियोग’ की ज़रूरत नहीं रह जाती है। यही इसकी वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता के साथ-साथ उपयोगिता भी है। विश्व कवि रविन्द्र नाथ टैगोर भी वास्तविक अर्थ में हिन्दू थे।
मगर उन्होंने धर्म, अर्थ, काम और मौक्ष को दरकिनार करते हुए लिखा-‘मंदिरों और अन्य धर्म स्थलों पर भगवान नहीं मिलता। वह वहां है, जहां कृषक कठिन धरती पर हल चला रहा है। वह वहां है जहां सड़क बनाने के लिए कोई मिहनतकश पत्थर तोड़ रहा है।’
ईसा मसीह से प्रभावित हमारे बापू भी सही मायने में हिन्दू थे। वे कहते हैं-‘मेरा धर्म हिन्दूइज़्म है जो मेरे नज़दीक मानवता का धर्म है और जिसमें तमाम धर्मों का सार विद्यमान है।’
‘हिन्दू धर्म’ एक लचकदार, सुधारवादी धर्म है और इसी दृष्टिकोण ने इसे हमेशा-हमेशा के लिए वैज्ञानिक और प्रासंगिक बना दिया है। एक मुसलमान इतिहासकार अलबैरूनी (973-1048) जो महमूद ग़ज़नवी के साथ भारत आया था। उसने हिन्दू धर्म पर एक प्रामाणिक ग्रंथ ‘अलहिन्द’ लिखा। वह ग्रंथ आरंभ से आज तक हिन्दुओं की नज़रों में भी मुसतनद और द्वेषहीन माना जाता है। वह हिन्दू रस्मोरिवाज़, रहन-सहन और आचार-व्यवहार के बारे में दिल खोलकर ईमानदारी के साथ लिखते हैं जिसमें उनके अपने समय के हालात हैं। कुछ के बारे में-
हिन्दुओं के 9 सिद्धांत
- किसी की हत्या नहीं।
- झूठ न बोलना।
- चोरी नहीं करना।
- माल एकत्र नहीं करना।
- बलात्कार नहीं करना।
- पवित्रता और स्वच्छता।
- कम परिधान।
- ओम का नियमित पाठ।
- व्रत।
उक्त सारे नियम पतंजलि के सिद्धांत पर आधारित थे। आगे वे हिन्दुओं के बारे में लिखते हैं-
’. हिन्दू किताब चमड़े पर नहीं लिखते वे भोज के पत्तों पर लिखते हैं।
’. वे ओम से किताब लिखना आरंभ करते हैं।
’. गोबर से लेपी ज़मीन पर खाना खाते हैं और अवशेष भोजन का प्रयोग दूसरी बार नहीं करते।
’. मुंह धोने के पूर्व पैर धोते हैं।
’. नीचे से ऊपर तक तमाम काम औरतें करती हैं, खेती की निगरानी भी।
’. किसी के घर जाने में आज्ञा की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन बाहर आने में अनुमति ज़रूरी है।
’. किताब का नाम आ़िखर में लिखते हैं आरंभ में नहीं।
’. रसायन, जादू और झाड़-फूंक पर विश्वास करते हैं।
व्राह्म्णों के बारे में लिखते हैं-
’. प्रत्येक दिन तीन बार स्नान।
’. दो बार भोजन।
’. प्याज़, लहसुन और कद्दू निषेध।
पूरे हिन्दुओं के बारे में लिखते हैं चाहे वह व्राह्म्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र जो भी हों-
’. प्रत्येक दिन नियमित दान।
’. अनाज या मवेशी में पहला ह़क सरकार का।
’. सूद से माल बढ़ाना निषेध।
’. शुद्र 2% सूद ले सकता है।
’. विधवा को दूसरी शादी का अधिकार नहीं, सती हो जाना है।
’. पिता के मरने का शोक बेटा एक साल तक मनाता है।
’. मुर्दा जलाये जाते हैं।
’. कुछ की आत्महत्या मान्य है। जैसे विधवा, जटिल रोग ग्रस्त रोगी, आत्महत्या गंगा या यमुना में ही।य्. त्योहार औरत और बच्चों के लिए ही होते हैं।
आज के हिन्दू बहुत अंशों में कल के हिन्दू से भिन्न नज़र आ रहे हैं और यही भिन्नता उसकी प्रासंगिकता है। क्या पूर्व की तरह आज के हिन्दू भी मृग छाला का प्रयोग करें, शरीर ढांपने का वस्त्र के अलावे पुराना तरी़का इस्तेमाल करें, ख्रेत बैल से ही जोतें और ट्रैक्टर का बहिष्कार करें, सफर पैदल ही करें, गुरुकुल में पढ़ें और बिना नौकरी प्राप्ति के मर जायें, फिर हथियार न उठाकर शाप देना शुरू करें, भिक्षाटन में निकलें?
हिन्दुत्व को आप धर्म मानें या न मानें, वेद से ताल्लु़क जोड़ें या न जोड़ें वास्तविकता यह है कि यह वेद पर आधारित वैदिक धर्म है। वेद मनुष्यों के द्वारा कण्ठस्थ किया गया, लिखा गया और प्रकाशित किया गया ग्रंथ है। मगर इसकी वाणी मनुष्य की नहीं, इसकी शैली आदमी की नहीं अपितु परमव्रह्म की है। मैक्समूलर के अनुसार ‘वेद दुनिया की लाइब्रेरी की पहली शोभा है। उसमें संसार भर की सभ्यता का दिग्दर्शन भारत के साथ है।’ मुझे इस बात पर गर्व है कि यूनान, रोम और मिश्र की विश्व प्रसिद्ध सभ्यताओं का जनाज़ा निकल गया मगर हमारी वैदिक तहज़ीव आज भी ज़िन्दा और पाइन्दा है।
संसार का सबसे पहला धर्मग्रंथ, भगवान की सबसे पहली आवाज़ जो धरती परआई, संसार का सबसे पहला इतिहास, संसार का सबसे पहला साहित्य, संसार का सबसे पहला गणित, संसार का सबसे पहला भूगोल, संसार का सबसे पहला विज्ञान, संसार का सबसे पहला समाजशास्त्र वेद ही है। वेद की उत्पत्ति काल के बारे में विवाद है और इसकी गुंज़ाइश भी है। बहुत से विद्वानों का मत है कि वह ईसा से अधिक से अधिक दस हज़ार साल पूर्व का है। सुप्रसिद्ध विद्वान अविनाश चन्द्र दास के अनुसार वेद पच्चीस हज़ार और पचहत्तर हज़ार साल के बीच का है। लोकमान्य तिलक के अनुसार यह सात हज़ार साल पूर्व का है। मैक्स मूलर आज से साढ़े तीन हज़ार पूर्व मानते हैं।
इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि वेद मंत्रों को सही रूप में समझना बहुत मुश्किल काम है। अरविन्द घोष के अनुसार वैदिक छन्दों की संरचना सूफी क्षेत्र पर सांकेतिक है। इसलिए इसे सूफी ही समझ सकते हैं। दूसरी जगह अपनी पुस्तक ‘वैदिक रहस्य’ में लिखते हैं कि वेद मंत्रों की उत्पत्ति ध्यान की हालत में हुई इसलिए इसका अर्थ ध्यान लगा कर ही समझा जा सकता है। ‘चास्क’ ने ‘निरोक्त शास्त्र’ में वेद शब्दों के अर्थ शब्द कोष के रूप में लिखे हैं। ऐसी पुस्तकों का संशोधित संस्करण भी मंजरेआम पर आना चाहिए।
वेद को सबसे पहले पुस्तक रूप में लाने का श्रेय ‘स्कन्द स्वामी’ जी को है, मगर आचार्य साईं का लेखन सबसे प्रामाणिक पश्चिमी समालोचक मानते हैं।
बार-बार मेरा यह कहना है कि वेद हिन्दुओं का धर्म ग्रन्थ है। मुझे दिल से अच्छा नहीं लग रहा है। देखिए वेद का संबोधन सिर्फ हिन्दुओं के लिए है या हर इनसान के लिए?
‘ऐ मानव! मिलकर चलो, मिलकर बोलो। तुम्हारे मन में एक प्रकार के विचार हों।’ (ऋग्वेद-मण्डल-10, सुक्त-189, मंत्र-2,10)
‘ऐ संसार के मालिक आप हमारी सारी बुराइयां दूर कर दें और वह गुण हममें भरें जिससे हमारा लाभ हो।’ (ऋग्वेद-5-82-5)
फिर ‘हे अश्विनी देव! हमारा बाहर जाना मधु के समान मीठा हो और वापस घर आना भी।’(ऋग्वेद-6-24-10)
ऐसी प्रार्थना इसलिए की गई है ताकि रास्ते में ही अपहरण न हो।
फिर ‘मेरे यज्ञ की सामग्री मेरे देवताओं के लिए आहूति हो। मेरी इच्छाएं पूरी हो, मेरे संकल्प सफल हों। मैं किसी तरह का कोई पाप न करूं, सभी देवता हमें ज्ञान दें।’(ऋग्वेद-4-128-10)
आगे-
‘जो सारी सृष्टि को समान भाव से देखता है, उसमें सन्देह का प्रवेश नहीं होता है।’(यजुर्वेद-6-40)
फिर-
‘जो ज्ञानी पूरी दुनिया को आत्मा की तरह समझ लेता है, उसे मोह, शोक या दु:ख नहीं सताता है।’ (यजुर्वेद-7-40)
‘सत्य से ही पृथ्वी रुकी हुई है।’(अथर्ववेद-1-1-14)
वेद पर आधारित धर्म होते हुए भी हिन्दू धर्म पुराण, स्मृति, रामायण, महाभारत, भागवद् गीता व्रह्म्सूत्र आदि से भी अपना संबंध जोड़े हुए है। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार हिन्दू धर्म को जीवन निर्वाह का एक साधन कहना अधिक प्रासंगिक होगा। (हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ)
नेहरु जी अहिंसा के द्वारा सत्य के अन्वेषण का नाम हिन्दू बतलाते हैं। (डिस्कवरी ऑफ इंडिया)
हिन्दू धर्म को अधिक से अधिक प्रासंगिक और वैज्ञानिक बनाने में हमारे मुनियों, नेताओं और बुद्धिजीवियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इतिहास साक्षी है कि आर्यों के देवता शिव कभी नहीं रहे मगर आज शिव ने व्रह्म और विष्णु को पूरे तौर पर मात दे दिया है। इस धर्म ने छुआछूत को झाड़ू मारा। सती प्रथा का उन्मूलन किया। वर्णाश्रम से अपना ध्यान हटाया और पर्दा को इस तरह बेऩकाब कर दिया जैसे कभी था ही नहीं।
आज पर्दा इस्लाम की देन माना जा रहा है मगर यह कभी हिन्दू धर्म की शा्न थी। और पर्दा इस धरती पर सबसे पहले हिन्दू धर्म से आया। वनवास के समय जब सीताजी राम के साथ निकलीं तो लोगों ने शोर मचाया-
‘कितने दुर्भाग्य का समय है कि सीता जिसे आसमानी देवता भी नहीं देख पाये थे आज बाज़ारी लोग देख रहे हैं।’(रामायण, अयोध्याकांडम्,सर्ग-33 )
सीता को जब विभीषण राम के पास ले चले तो सीता लाज से अपने शरीर में सिमटी जा रही थी। (युद्धकांडम, सर्ग-114)
इस बात को देखकर श्रीराम ने समझाया-
‘‘दु:ख में, विवशता में, युद्ध और स्वयंवर एवं विवाह के समय नारी पर नर की निगाह पड़ जाना पाप नहीं है।’’(रामायण-युद्धकांडम, सर्ग-114)लक्ष्मण ने एकबार सुग्रीव को बुलाया। वह हठ में नहीं आया। फिर उसको भय सा लगा तो उसने अपनी पत्नी को लक्ष्मण से मिलने को भेजा।लक्ष्मण ने देखते ही मुंह फेर लिया। फिर वह बगल से माफी मांगती सामने आई तो लक्ष्मण ने गर्दन झुका ली और कोई बात नहीं की।
(रामायण-किशुनकांडम,सर्ग-33)
आपने त्रेता को देखा अब ज़रा द्वापर को भी देख लीजिये। जब द्रोपदी को भरे दरबार में हाज़िर किया गया तो उन्होंने क्या कहा-
‘‘ महानुभावो! राजाओं ने मुझे केवल स्वयंवर के अवसर पर देखा था। उससे पूर्व मुझे किसी ने नहीं देखा। सूरज तक नहीं देख पाया था। आज मैं दुर्भाग्य से अनजाने मर्दों के समक्ष हूं। और वे मुझे देख रहे हैं। इससे बढ़कर अनादर और क्या होगा? राजा अपना पुराना और प्रारंभिक धर्म खो बैठा। मैं सुनती आई
थी कि पुराने ज़माने के शिष्ट अपनी पत्नियों को भीड़ में न ले जाते थे। दु:ख है कि इस वंश का धर्म आज चला गयचा।’’ (महाभारत, सभापर्व, अध्याय-69)
उस समय हैरत कई गुणी बढ़ जाती है, जब कुश्ती दंगल के समय कंस ने औरतों के देखने का ़खास इन्तज़ाम किया और जाली लगवाई। (विष्णु पर्व, अध्याय-19)
न्यूटन के गति सिद्धांत के आलोक में हर क्रिया के विपरीत एक प्रतिक्रिया होती है। आपने धर्म के जिस अंश को रखा वह क्रिया है और जिसे छोड़ दिया वह प्रतिक्रिया। इस तरह से हिन्दू धर्म की वैज्ञानिकता और उजागर होती है।
बहनो और भाइयो! एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है कि धर्म के प्रासंगिक और वैज्ञानिक होने से कोई वैतरणी नदी पार कर जायेगा? क्या मौक्ष की प्राप्ति हो जायेगी? क्या यह वोट है कि हम उसे लेकर एमपी या प्रधानमंत्री बन जायेंगे?
आपके धर्म ग्रंथों में स्वर्ग और नरक की भी चर्चा है और वह कैसे संभव है? देखिए स्वर्ग के विषय में-
‘‘मधु और मक्खन से भरी नहरें जो शराब, दूध, दही और पानी से भरी होंगी। अत्यधिक मिठास लिये उबलती रहेंगी जो स्वर्ग में तुम तक पहुंचेगी। कमल से भरी हुई पूरी झील तुम तक आयेगी।’’ (ऋग्वेद, 4-34-6)
नरक के बारे में-
‘‘मृत्युलोक के कुत्तों और गिद्धों के द्वारा उसकी आन्तें खीचीं जाती है। सांप और बिच्छू डसने और डंक मारने वाले बहुत कष्ट पहुंचाते हैं।’’(श्री भागवत पुराण 3-30-36)
आप इस महान पावन और अद्वितीय धर्म को ़गलत राजनीति से बचा कर रखिए। धर्म पर जब- जब भी राजनीति का साया पड़ा है नु़कसान हुआ है। धर्मराज युधिष्ठिर-‘‘अश्वत्थामा हतो नरो वाकुंजर।’’ बोलकर कुछ देर के लिए ही मगर नरक में गये। वेद की हि़फाज़त आपका कत्र्वय है। वेद की सही व्याख्या के बाद जो अर्थ सामने आएगा उससे दुनिया में बहुत बड़ा इऩ्कलाब आयेगा। धोखेबाज़ धर्मों का ज़नाज़ा निकल जायेगा। आप इतिहास देखिए। दुनिया में कई ऐसी मशहूर भाषाएं आईं जिसमें ईश्वरीय ग्रंथ लिखे गये। सोहफे इब्राहीम, तौरैत, और इंजील आदि धर्म ग्रंथों की भाषाएं कलदानी, सुरयानी, इब्रानी का दुनिया से वजूद मिट गया। मगर संस्कृत भाषा मर कर फिर जिं़दा हो गई है ताकि लोग वेद पढ़े, समझे और सोचें। दोस्तो!ूमैं इ़कबाल की तरह आसमान पर आज तक और कभी नहीं गया हूं। ध्यान की हालत में ़खुदा ने संस्कृत से संबंधित बात मेरे हृदय में दी है। यह बात ध्यान में ही संभव है, सिनेमा हॉल में नहीं। ‘कर्मण्ये वाधिका रस्ते मा फलेषु कदाचन’आपसे अधिक कौन समझ सकता है?
आपके पास अच्छी दुआ है सबके लिए दुआ कीजिये-
‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया’’
(5 सितम्बर, 2006 मंगलवार को बेगूसराय के दिनकर भवन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान आचार्य ़फज़लुर रहमान हाशमी का हिन्दुत्व की वैज्ञानिकता और प्रासंगिकता पर दिया गया अध्यक्षीय भाषण)