आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी
बेगूसराय का साहित्य वह साहित्य है जिस पर पूरी दुनिया को गर्व है और बेगूसराय के प्रति कृतज्ञ भी है जिससे बेगूसराय के विद्वानों का एक बड़ा तब़का भी अनभिज्ञ रहा है। किसी क्षेत्र विशेष के साहित्य का इतिहास भाषा नहीं भाषाओं पर आधारित रहता है, जिसकी अवहेलना किसी न किसी रूप में हुई है।
इसी सरज़मीन बेगूसराय के मुज़़फरा नामक ग्राम में जो अब वीरपुर प्रखंड का एक क्षेत्र है, अरशै़खुल आलम अलमुहद्दीस हज़रत मौलाना सैयद मोहसिन बिन यहिया तिरहुति रहमतुल्लाह अलैह 1805 ई. में पैदा हुएं; जिन्होंने संपूर्ण भारत में घूम-घूमकर उस समय के क़रीब-क़रीब तमाम विद्वानों से अरबी भाषा की शिक्षा ली। फिर मिस्र, मक्का व मदीना शरीफै़न तक शिक्षा के लिए गये।
यह इतिहास का एक विचित्र अध्याय है कि जो शिक्षा लेने मक्का शरी़फ गये वहां उनसे बड़े-बड़े अरबी भाषा के विद्वानों को शिक्षा देने का काम दुनिया के सबसे पवित्र स्थल ‘मस्जिद-ए-हराम’ में बैठाकर 7 वर्षों तक लिया गया। मौलाना मोहसिन के अथाह ज्ञानसागर ने मक्का के नियम को तोड़ा। इसके पूर्व के नियमानुसार ‘मस्जिद-ए-हराम’ में वे ही शिक्षा दे सकते थे जिनकी मात्रृभाषा अरबी होती।
यह निश्चित रूप से गर्व के साथ कहा जा सकता है कि उन्होंने अरब जाकर भारत की अभूतपूर्व प्रतिष्ठा प्रदर्शित की और पूरी दुनिया से अपना लोहा मनवा लिया। इस महान और पावन कार्य के लिए बादशाह की स्वीकृति भी अनिवार्य हुआ करती थी।
उसके बाद मौलाना मदीना शरीफ चले गये जहां उन्होंने अरबी भाषा में ‘अलयानलजिनी फीअसानीद शै़ख अब्दुल ़गनी’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसकी तारी़ख हज़रत मौलाना सैयद अब्दुल हई हुसनी एवं उनके सुपुत्र मौलाना सैयद अब्दुल हसन नदवी उर्फ अली मियां के अनुसार इस किताब को लिखकर वह बुध के दिन शाम को ़फारि़ग हुए। रज्जब के 11 दिन बा़की थे। हिजरी 1280 थी। उन्होंने इस किताब को मदीना मुनव्वरा जो रसूल करीम का मुबारक शहर है, में लिखा है। उनपर दरुद-ओ-सलाम।
‘अलएलाम’ पृष्ठ संख्या-447 के अनुसार उनके ज़माने में शायद ही उनकी दूसरी मिसाल मिल सके। दुनिया के कई विद्वानों के अनुसार जिसमें मुफ़्ती-ए-आज़म पाकिस्तान मौलाना शफी उस्मानी भी शामिल हैं। कहते हैं कि ‘अलयानलजिनी फीअसानीद शै़ख अब्दुल ग़नी’ जिसने नहीं पढ़ी वह हदीस शरी़फ (मुहम्मद साहब के अमृत वचनों का संग्रह) को समझने का दावा ही नहीं कर सकता है।
‘अलयानलजिनी’ की शैली देखकर कोई कह नहीं सकता है कि वे अरबी भाषी नहीं थे। क्योंकि सुक्ष्मदृष्टि और मौलिक सूझ प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। सहजता उनकी भाषा की विशेषता और मिठास उपलब्धि के रूप में है। वे दबंग, तेजस्वी और स्पष्ट वक्ता के रूप में भी भारत और विभिन्न देशों में स्वीकारे गये हैं।
1857 में मेरठ में अंग्रेज़ों के ख़िला़फ मोर्चा संभालने हेतु आलिमों को प्रोत्साहित करने में भी आप थे। जो कुछ बातें सीने-ब सीने ख़ानदान में चली आ रही है। उनका ख़ानदान इरा़क, अ़फ़गानिस्तान के बाद भारत के मेरठ में भी बेगूसराय आने के पूर्व ठहरा था। ख़ानदानी वंशावली के अनुसार मौलाना मोहसिन का संबंध हज़रत मौलाना सैयद अब्दुल अज़ीज़ मोहद्दिस देहलवी तक जाता है। उसके ऊपर की पढ़ी नहीं जा सकी थी, जो बेगूसराय के ख़िज्रचक की लाइब्रेरी में क़रीब 1950 तक सुरक्षित थी। यह लिखना अनिवार्य सा हो जाता है कि मौलाना के पिता जब मौलाना शैशवकाल के ही थे ख़ानदानी जगह मुज़़फरा को छोड़कर ख़िज्रचक ग्राम में बलान नदी के किनारे आकर बस गये। इसका कारण भीठ का पुल बना जिससे मुज़़फरा बुढ़ी गंढ़क से किश्ती के द्वारा दलसिंहसराय सपरिवार जाना मुश्किल हो गया था। जहां एक कचहरी थी और सुरक्षित स्थान में किसी समय अंग्रज़ों के ज़ुल्म से बचने के लिए पनाह ली जा सकती थी। दरअसल वह ख़ानदान अंग्रेज़ों के ख़िला़फ था।
मौलाना मोहसिन जब अपने घर ख़िज्रचक आने लगे तो उन्होंने मक्का, मदीना और अन्य मुस्लिम देशों से प्रकाशित और हस्तलिखित किताबों का एक बड़ा भंडार हासिल किया जिसमें अरबी साहित्य दर्शन और मीमांसा से संबंधित हज़ारों नायाब और अमूल्य ग्रंथ थे। किताबों की कुल संख्या 40 हज़ार के ़करीब थी। तमाम किताबों के योग से ‘ख़िज्रचक कुतुब ख़ाना’ का निर्माण हुआ। इस पुस्तकालय ने शीघ्र ही भारत में अपना एक विशेष स्थान बना लिया। कहा जाता है कि विदेशों से भी शोधकर्ता ख़िज्रचक यानी बेगूसराय ज़िला एवं बरौनी प्रखंड का एक गांव आने लगे। उस्मानिया यूनिवर्सिटी से तो काफी छात्र शोध को आते थे। जिन लोगों के लिए ख़ास प्रबंध रहा करता था। भारत के सुप्रसिद्ध विद्वान सैयद सुलेमान नदवी, अब्दुर रहमान देसनवी, मौलाना मोनाज़िर अहसनी गिलानी, मौलाना बदरुद दुजा कामिल, सैयद मोईनउद्दीन नदवी, मौलाना फिदा हुसैन आदि भी इस पुस्तकालय से लाभान्वित हुए हैं। मौलाना के बाद भी ‘यहिया वक़्फ़ स्टेट ख़िज्रचक’ के माध्यम से जनहित का काम चलता रहा। पुस्तकालय और मदरसा दोनों उरुज पर रहा, जिसका सारा श्रेय ख़ान बहादुर मियां जान बाबू के सिर जाता है। उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार में काफी नाम कमाया। उनके द्वारा संचालित मदरसा अपनी मिसाल आप था। वहां हज़ारों छात्र दूर और निकट के शिक्षा ग्रहण करते थे, जिनमें क़रीब 7 सौ के रहने-खाने और किताबों का ख़ास प्रबंध था। यहां तक कि उन छात्रों को घर जाने का किराया भी दिया जाता था।
उस ख़ानदान के कई लोग बेगूसराय के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हुए जिनमें अंतिम बशीर उद्दीन अशऱफ़ थे।
मदरसा ख़त्म हुआ। लाइब्रेरी टूटी। कुछ ही किताबें ‘ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी’ तक पहुंच पायी। आज भी ख़िज्रचक के विशाल खंडहर अपनी मूक भाषा में कुछ कहते सुनायी देते हैं।
ख़ान बहादुर मियांजान अशऱफ़ के दो पुत्रों में छोटे नज़ीर उद्दीन अशऱफ बड़े सरल, उदार और दीनप्रिय व्यक्ति थे। बड़ों का नाम ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के रूप में आ चुका है।
मिलाजुलाकर आज भी वह ख़ानदान भारत के किसी भी बड़े ख़ानदान के सामने सर उठाकर खड़ा हो सकता है। जमशेद अशरफ़ (पूर्व मंत्री), डॉ. सुरैया रहमान(लेडी डॉक्टर कोलकाता), डॉ. नाहिद (लेडी डॉक्टर कोलकाता), आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी (तीन भाषाओं के मर्मज्ञ साहित्यकार एवं साहित्य अकादेमी अवार्ड प्राप्त), ए आर आज़ाद (पत्रकारिता के लिए हकीम अजमल ख़ां राष्ट्रपति अवार्ड प्राप्त एंव वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार एवं संपादक दूसरा मत: राष्ट्रीय पाक्षिक पत्रिका, नयी दिल्ली) आदि उसी ख़ानदान की नयनज्योति हैं।
मोज़़फरा के मौलाना सैयद अब्दुल हमीद एवं उनके सुपुत्र मौलाना सैयद ख़ुदादाद भी बुजुर्ग और अरबी भाषा के महान विद्वान थे। उनके हस्तलिखित ग्रंथ कीड़ों की ख़ुरा़क बने। मौलाना ख़ुदादाद के दो पुत्रों मौलाना मोईन और मौलाना निज़ामुद्दीन ने मध्यप्रदेश में इल्म की शमा जलायी। ग़ौरतलब है कि उस समय मौलाना ख़ुदादाद से शिक्षा ग्रहण करने ‘बुखारा’ तक से विद्वान आया करते थे।
बेगूसराय के साहित्य के इतिहास में मौलाना यार अली को भूल जाना बड़ा गुनाह होगा। यद्यपि बेगूसराय ज़िला उनका या उनके पूर्वज का जन्म स्थान नहीं था। आप दिल्ली से क़ाज़ी (इस्लामिक न्यायधीश) बनाकर बेगूसराय के बहरामपुर भेजे गये थे। आपका परिवार कुछ दिनों बनहरा में रहा फिर बरौनी फ्लैग के पास बरियारपुर नामक गांव में स्थायी रूप से बस गया। दिल्ली में उनका बड़ा दबदबा था। वे अरबी और फारसी भाषा में बड़ी दक्षता रखते थे। उनके कई हस्तलिखित ग्रंथ थे जो प्रकाश में नहीं आ सके। आपको लार्ड कर्जन (वायसरार्य हद) को फारसी पढ़ाने का श्रेय प्राप्त है। एक दिन आप लार्ड कर्जन को फारसी का एक श्लोक -‘शुनिदा कए बवद मानिंद दीदा’ अर्थात सुनी हुई बात देखने के बराबर की नहीं होती है पढ़ा ही रहे थे कि महारानी विक्टोरिया के निधन की ख़बर लार्ड कर्जन तक आयी। वे सुनकर काफी घबरा गये। कुछ क्षण के बाद अपने गुरु यार अली से सादर सवाल किया- क्या हुजुर-‘शुनिदा कए बवद मानिंद दीदा’ अर्थात सुनी हुई बात देखने के बराबर की नहीं होती है?
मौलाना यार अली के पौत्र मौलाना इशहा़क भी अरबी भाषा के बड़े विद्वानों में से थे। स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने कसकर भाग लिया और माल्टा के जेल मे भी रहे। उनके नाम पर बरौनी फ्लैग के पास एक रोड ‘इसहा़क रोड’ के नाम से है, जो उनकी याद ताज़ा कर देती है।
मौलाना इसहा़क के सुपुत्र अब्दुर रब नश्तर को भी बड़ी प्रसिद्धि मिली। वे बड़े अच्छे व्याख्यानदाता और सुकवि थे।
विश्व प्रसिद्ध शब्दकोष के संपादक सैयद अहमद भी मूलत: बारो के ही थे। उनके पिता मौलाना सैयद अब्दुर रहमान को भी भूलना नहीं होगा। आपको सैयद अहमद शहीद के साथ रहने का भी श्रेय प्राप्त है। ध्यातब्य है कि हकीम इस्माइल (पकठौल) और हकीम अब्दुल हई (चंदौर) की चिकित्सा-शास्त्र पर लिखी गयी पुस्तकें ‘बुस्तान’ दुलर्भ है।
मौलाना सैयद अब्दुल अज़ीज़ (ख़िज्रचक), मौलाना शफी (पपरौर) के अनेकानेक हस्तलिखित ग्रंथ बर्बाद हो गये। मौलाना अब्दुल अहद (क़स्बा) ने कई उर्दू व अरबी की किताबें लिखीं। बांग्लादेश के पाठ्यक्रम में भी उनकी किताबें स्वीकृत थीं। मौलाना ़कुरैश (बारो) दर्शनशास्त्र के बड़े विद्वानों में से थे। मौलाना उस्मान (चिलमिल) की हदीस पर समीक्षाएं इज्जत के साथ देखी जाती हैं। हकीम सैयद अबु सालेह (मुज़़फरा-तेघड़ा) जिनकी ‘वैकुंठ’मुंगेर ज़िला का इतिहास था, प्रकाशित न हो सका।
मौलाना अनायतुल्लाह अंसारी, मौलाना यहिया अंसारी, हा़िफज़ मोईन उद्दीन (आलमचक),मौलाना ज़िया (बलुआरा), मौलाना इदरीस, मौलाना मोईन अंसारी (नीमा), मौलाना श़फी़क, मौलाना ग़ाज़ी (चकरहिमा), मौलाना अली (फुलवरिया), मौलाना शरफुद्दीन (चिलमिल), मौलाना यहिया (वीरपुर), मौलाना अख़्तर रहमानी (मुज़़फ़रा), मौलाना इस्माइल(बेगूसराय) आदि साहित्यानुरागियों में से थे।
अन्य विद्वानों में मौलाना यहिया नदवी, मौलाना मुकर्रम, मौलाना तालिब (सानहा), मौलाना अज़ीम हैदरी (बलिया), मौलाना अब्दुल माजिद, मुफ़्ती दाऊद, कारी इशा (चिलमिल), मौलाना अबु अख़्तर ़कासमी (पपरौर), मौलाना अमीन हसन ख़ान चतुर्वेदी (परना) आदि प्रतिष्ठा के पात्र हैं।