ए आर आज़ाद
आचार्य हाशमी एक असाधारण शख़्सियत के मालिक थे। मालिक ने उन्हें अपने आप में एक अनोखी शख़्सियत बख़्शी। भाषाओं पर पकड़ और शब्दों की जादूगरी उनकी ख़ास पहचान थी। उर्दू पर उनकी जÞबरदस्त पकड़ थी। फारसी के बेहतरीन जानकार थे। संस्कृत में उन्हें महारत हासिल थी। अंग्रेजÞी में निपुणता थी। बंगाली भाषा से उत्कृष्ट प्रेम था। उसे सिर्फ समझते ही नहीं थे बल्कि विशुद्ध बोलते भी थे। और शुद्धता के साथ लिखते भी थे। अरबी की उन्होंने समझ अपने अंदर विकसित की। और क़ुरआन को बेहतरीन तरीक़े से समझ लेने का हुनर भी सीख लिया। नतीजे में उन्होंने आलिम-फ़ाज़िल, मुफ़्ती व क़ाज़ी से भी बेहतर अंदाज़ में उसकी टीका करने की योग्यता को छू ली। स्वाध्याय उनकी पूंजी थी। और स्मरण शक्ति उनकी जागीर। उस स्मरण शक्ति की जागीर को उन्होंने बनाए और बचाए रखा।
आचार्य हाशमी को मैथिली से अगाध प्रेम था। ये प्रेम बचपन से जुड़े रहने की वजह से किशोरावस्था तक में परवान चढ़ती हुई आसमान को छूती चली गईं। जब लेखन की नींव पड़ी तो उन्होंने मैथिली भाषा के साथ भी पूरी-पूरी ईमानदारी बरती। नतीजे में हिंदी में बहुत ही कम उम्र में वो राष्ट्रकवि दिनकर जैसे देश और जिÞले के मशहूर कवियों व साहित्यकारों के साथ मंच साझा करने लगे। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जैसे चोटी के कवियों के बीच उनकी पहचान बनती चली गई। नतीजे में उनकी पहली किताब की भूमिका राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त ने लिखी। फिर इस किताब के सामने आने के बाद तो आचार्य हाशमी की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी। उन्हें अपने समय के सिद्धस्त और चोटी के साहित्यकारों का स्नेह, प्रेम और साथ मिला। देखते-देखते वो भी बहुत ही कम समय में देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार बनकर जन मानस के बीच मकबूल होते चले गए।
उन्होंने उर्दू को हमेशा हिंदी की छोटी बहन समझकर उसपर शफÞकÞत लुटाई। हिंदी की तरह उर्दू में भी ख़ूब लिखा। कोई भी स्तरीय उर्दू के अख़बार हों या देश की प्रतिष्ठित उर्दू पत्रिका, उनके लेखन से महरूम नहीं रही। हाशमी साहब की रचना जितनी हिंदी में छपी, कमोबेश उतना ही उर्दू साहित्य में भी उन्होंने अपना योगदान दिया। यही वजह रही कि हिंदुस्तान के लगभग सारे हिंदी और साहित्यप्रेमी उनके साहित्य-संसार से वाक़िफ़ रहे।
आचार्य हाशमी ने हिंदी और उर्दू के साथ-साथ जब मैथिली लेखन को भी धार और रफ़्तार देनी शुरू कर दी तो पूरे मैथिली हलक़े में ज़बरदस्त चर्चा शुरू हो गई। मैथिली प्रेमियों के मन में अपना ख़ास मुक़ाम बना लिया। मैथिली के साहित्यिक समारोह की वो ज़ीनत बन गए। मैथिली में उनके लेखन की ख़ास तौर पर नोटिस होने लगी। और देखते ही देखते आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी मैथिली के लोकप्रिय और नामवर कवि बनकर छा गएं। उनकी गिनती मैथिली के चंद बड़े मैथिली लेखकों में होने लगी। नतीजे में स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रमों में भी वो पढ़ाए जाने लगें। इधर हिंदी में उनकी पहले से ही प्राइमरी कक्षा की कुछ पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल थीं।
इस तरह हिंदी, उर्दू के साथ ही साथ मैथिली में भी उसी रफ़्तार से उनकी रचनाएं स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं, तो चारों दिशाओं में उनकी यश कीर्ति फैलती चली गई। कोई दिन और कोई अख़बार नहीं था, जहां वो अपनी रचनाओं के जरिए उपस्थित नहीं रहते थे।
अख़बारों और पत्रिका के अलावा रेडियो स्टेशनों से भी उनका गहरा ताल्लूक रहा। टीवी पर भी उनके कार्यक्रम ने उनकी ख्याति में चार चांद लगाई। वो हिंदी के लिए पटना रेडियो स्टेशन से बुलाए जाते थे। उर्दू का प्रोग्राम भी पटना रेडियो स्टेशन से ही प्रसारित होता था। मैथिली के कार्यक्रम के लिए वो दरभंगा रेडियो स्टेशन से अक्सर बुलाए जाते थे।
मैथिली का एक अपना अंदाज़ होता है। और इस अंदाज की पहचान हाशमी साहब को ख़ूब थी। उन्होंने उस भाषा के साथ पूरा न्याय किया। उस भाषा को बेहतरीन मुक़ाम दिलाने में उनका योगदान अविस्मरणीय है। उन्हें मैथिली साहित्य और मैथिली में लिखने वालों से अगाध प्रेम था। वो मैथिली की छोटी से छोटी पत्रिकाओं को भी आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। उन्होंने हमेशा प्रतिभा को सम्मान दिया। जिसकी लेखनी में दम होता था, उसे स्नेह और प्यार के साथ-साथ मार्गदर्शन भी एक पथ-प्रदर्शक की तरह देते थे। यही वजह है कि उनके चाहने वालों में मैथिली के लेखक और प्रशंसक ज्Þयादा थे। उन्होंने साहित्य अकादेमी के मैथिली अवार्ड समिति के जूरी रहते हुए मैथिली के छोटे किंतु प्रतिभाशाली लेखकों को भी आगे बढ़ाया। और निर्भय होकर उन्हें साहित्य अकादेमी का अवार्ड भी प्रदान किया। आचार्य हाशमी का यह बेबाकपन सबको भाया। उन्होंने कभी भी प्रतिभा को दबाने की कोशिश नहीं की। सदा प्रतिभा को नया आयाम देने की कोशिश की। उनके सामने जाति-पात, बिरादरी और धर्म व्यक्तिगत मामला होता था। उन्होंने कभी भी इस पैमाने पर न तो खुद को कसा और नहीं किसी को तौला। एक विशुद्ध साहित्यकारों की तरह ही अपनी शुद्धता और न्याय को बरकÞरार रखा। इसका सबसे ताजा उदाहरण है कि उन्होंने बेगूसराय जिÞले के पहले जिÞलाधिकारी और देश के चर्चित आईएएस और जाने माने लेखक मन्त्रेश्वर झा को अपने कार्यकाल में अवार्ड नहीं दिया। उन्होंने बेगूसराय के ही एक मैथिली के लेखक प्रदीप बिहारी को उस अवार्ड के लिए चुना। यह एक साहसिक और अपने आप में एक निष्पक्ष कदम था। उन्होंने दोस्ती नहीं बल्कि एक साहित्यिक धर्म निभाया। उन्होंने युवाओं को प्रोत्साहित किया। और जनमानस में एक संदेश दिया कि तुम ईमानदारी से लिखो तो पुरस्कार तुम्हारे पीछे-पीछे ख़ुद ब ख़ुद आएगा। ऐसा हाशमी साहब जैसे ही लोग कर सकते हैं। दूसरे लेखकों के लिए ऐसा करना बहुत आसान नहीं था।
हाशमी साहब को दुनिया के पहले मुस्लिम मैथिली कवि के तौर पर याद किया जाता है। यह उनकी उपलब्धि बड़ी है। और मैथिली के प्रति अगाध प्रेम का द्योतक भी है। आचार्य हाशमी का साहित्य मैथिली से भरा-पड़ा है। दुखद पहलू सिफर्Þ इतना है कि उन्होंने रचनाओं को पुस्तक का आकार नहीं दिया। नतीजे में आज की पीढ़ी धीरे-धीरे उनको भुलती जा रही है। लेकिन जिनकी रचनाओं में दम होता है, वो इतिहास में दर्ज हो जाते हैं। इतिहास उन्हें सुनहरे अक्षरों में अंकित कर देता है। यह सुनहरा अक्षर किसी समय विशेष के दबाव में आकर मिटता नहीं है। हाशमी साहब का जितना बड़ा नाम हो चुका है, वो अब मिटने वाला नहीं है। इतिहास के पन्नों में आचार्य हाशमी स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो चुके हैं। जो लोग इतिहास के पन्नों को पलटेंगे, हाशमी साहब उनके मार्गदर्शन के लिए एक सच्चे पथ-प्रदर्शक बनकर सामने रहेंगे। ’
( लेखक दो दर्जन से अधिक पुस्तकों के रचयिता और दूसरा मत के संपादक हैं)