ए आर आज़ाद
फ़ज़लुर रहमान हाशमी एक आकर्षक और विद्युतीय प्रभाव वाला नाम है, जो विवादों के घेरे में रहकर भी उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ता गया और हमेशा ‘भाषाई एकता’के लिए कार्य करता रहा। श्री हाशमी का परिवार भाषा और साहित्य का परिवार था। चाहे वह पैतृक (बराह, पटना) हो अथवा मातृक (मुज़़फरा)। ‘कारवां’(नसीम बिहारी) ‘नदीम’(सैयद मोहीउद्दीन नदवी) ‘फितरत’(सबा रशीदी) सारी की सारी उर्दू पत्रिकाएं परिवार और ख़ानदान से ही संबंधित थीं, जो पटना की सरज़मी से प्रकाशित हो रही थीं। आपके चाचा सैयद मसूद आलम ‘वफा बराही’ के बिना बिहार का कोई मुशायरा सफल नहीं माना जाता था। पैतृक की विश्व प्रसिद्ध हस्तियां सैयद सुलेमान नदवी, मौलाना मुनाज़िर हसन ग़िलानी मौलाना बदरुददुजा ‘कामिल’जैसी शख़्सियत किसी न किसी रुप में क़रीबी रिश्तेदार थे। मातृक गांव मुज़़फ़रा के अरबी भाषा के विश्व प्रसिद्ध ज्ञाता एवं समर्थ साहित्यकार अरशै़खुल आलम अलमुहद्दिस हज़रत मौलाना सैयद मोहसिन बिन यहिया तिरहुती रहमतुल्लाह अलैह पूरे विश्व की शान हैं। उन्होंने भारत के साथ मिस्र और विशेष रुप से मदीना शरीफ़ में इस्लामी साहित्य की ज्योति में प्रखरता दी। दुनिया का साहित्य उनके नाम से भरा पड़ा है।
अफसोस की बात है कि मिथिला के इतिहास में उनका ज़ि़क्र नहीं है जिन्होंने अपने नाम के आगे तिरहुति जोड़कर संपूर्ण विश्व में तिरहुत का नाम रौशन किया। उर्दू ग्रंथ आईना-ए-तिरहुति (बिहारी लाल फितरत) में उनका ज़िक्ऱ आदरपूर्वक किया गया है।
आपने पहली रचना किस भाषा व विधा में लिखी थी। उसका कारण व आधार क्या था?
मेरे साथ भी आदि कवि ‘बाल्मिीकि’ वाली घटना किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई है। आदि कवि ने क्रौंच वध से प्रभावित होकर ‘मा निषाद प्रतिष्ठात्वम्’ की बात की थी। मेरा हादसा यह है कि 1952 ई. के आसपास मेरे पास-पड़ोस के लोग पाकिस्तान जाने लगे और वह भी सुरक्षा के ख़्याल से क्योंकि वे लोग भारत में हिन्दुओं से ख़तरा महसूस करने लगे थे। मेरे पिताजी डॉ. सलीम उद्दीन फ़ातमी से भी वतन छोड़ने को कहा गया था। लेकिन वो तैयार नहीं हुए। मैंने नाना (मौलाना शा़िफ़क) का एक भाषण सुना था। उन्होेंने कहा था-‘खुदा दुनिया का मालिक है’। मुझे लगा कि ये लोग पाकिस्तान सुरक्षा की दृष्टि से क्यों जा रहे हैं, जब ़खुदा दुनिया का मालिक हैं। जो भारत का ख़ुदा है वही पाकिस्तान का। उस दस वर्ष की आयु में मेरे मुंह से शेर कई पंक्तियों में निकले। जिसकी एक पंक्ति मुझे आज भी याद है। वह है-
‘‘मुल्क दो है तो क्या ख़ुदा भी दो है?
यह न सोचा के चले जाते हैं छोड़े घर-दर’’।
सच कहता हूं कि उस दिन मैं बहुत रोया था। कई वर्षों बाद फिर आंखों में शबनमी ़कतरे तैरते नज़र आए थे। जब यह सूचना मिली थी कि वे तमाम के तमाम लोग पाकिस्तान में मुसलमान के हाथों ही मारे गए।
मैथिली में कब से लिखना प्रारंभ किया। इस भाषा से कैसे प्रभावित हुए?
दो माह की अवस्था में हमेशा-हमेशा के लिए पैतृक को छोड़कर मातृक आ गया। जब मेरी आठ साल की उम्र थी तो मां दुनिया छोड़ गई। तन्हा संतान के कारण मैं उनकी संपत्ति में बारह आने का मालिक बना, जिसमें ज़मींदारी व ज़मीन भी थी। मैंने सोचा कि मां की जायदाद के साथ मां की भाषा भी लेनी चाहिए। और मैं मैथिली में 1960 से लिखने लगा।
कुछ अ़ख़बारों और व्यक्तियों ने आपको साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार प्राप्त करने वाला मैथिली में भारत का पहला मुसलमान कहा है?
क्या कहूं भारत में अतिश्योक्ति भी है और कर्मोक्ति भी। श्री कृष्ण ने पहाड़ उठा लिया था। उन्हें तो गिरधर ही कहना चाहिए था। लोगों ने जमकर मुरलीधर ही कहा। मेरे साथ भी यही बात है। य़कीन मानिए, मैं भारत का ही नहीं विश्व का इस मामले में पहला मुसलमान हूं।
आपके मैथिली लेखन पर मुसलमानों ने आपकी प्रशंसा अधिक की या मु़ख़ालफ़त?
पूरे मिथिला में प्रशंसा हुई है। मिथिला के बाहर भी लोगों के मन में आदर भाव रहा है। कारण, मुसलमान जन्मजात ईमानदार और सेक्यूलर होते हैं। बड़ी प्रशंसा और गर्व की बात है कि हमारे मुफ़्ती आज़म भारत गौरव जनाब हज़रत डॉ. मुफ़्ती मुकर्रम अहमद साहब शाही इमाम फ़तेहपुरी मस्जिद की भी दुआएं मेरे साथ है। हमारे यहां के डॉ. नवाब, डॉ. अब्दुल मो़गनी, मज़हर इमाम आदि मैथिली विरोधी नहीं रहे। हां, बेगूसराय के एक ही परिवार के दो व्यक्तियों ने मेरी कसकर मु़खालफ़त की। मेरे मैथिली लेखन और आकाशवाणी व दूरदर्शन से राम-कृष्ण के नाम लेने पर कसकर कोसा। ख़त भी लिखवाया और सलमान रूश्दी और तसलीमा नसरीन की पंक्ति में खड़ा करने की कोशिश भी की। ख़ुदा का शुक्र रहा। उनकी बात बेगूसराय में चल नहीं पाई।
मातृभाषा की वरीयता इस्लामिक दृष्टि से भी है क्या?
मातृभाषा का ख़्याल ख़ुदा ने भी रखा है। आसमानी किताबों पर नज़र चली जाए तो स्पष्ट होगा। आसमानी किताब सोहफे इब्राहीम, ज़बूर, तौरैत, इंज़ील एवं क़ुरआन पाक की भाषाएं अलग-अलग क्यों रहीं? कुल की भाषा अरबी ही क्यों नहीं थी?
दरअसल बात यह थी कि ख़ुदा को जहां नाज़िल करनी थी उसी के अनुरुप भाषाओं का चयन हुआ। ताकि ईश संदेश को ईशदूत समझकर सरलता पूर्वक अपने अनुयायियों को समझा सके। मैं मैथिली में ़कुरआन पाक और हदीस शरीफ भी लाना चाहता हूं। यह इस्लाम और मुसलमानों की शान के ख़िलाफ़ नहीं कहा जा सकता। भाषा कभी धर्म की चारदीवारी में बंद नहीं रहती।
मैथिली के संदर्भ को लेकर मुसलमानों से आप क्या कहना चाहेंगे?
बंगाली मुसलमानों की भाषा बंगला, आसामी मुसलमानों की भाषा असमिया, उड़ीसा के मुसलमानों की उड़िया, कर्नाटक के मुसलमानों की कन्नड़, आंध्र प्रदेश के मुसलमानों की भाषा तेलुगू हो सकती है तो मिथिला के मुसलमानों की मातृभाषा मैथिली क्यों नहीं होगी?
मैं मीथिला के मुसलमानों से अपील करना चाहूंगा कि वे इस पर ठंडे दिल से सोचें। मैथिली के लिए आगे आएं। तख़्तोताज, दौलत, ज़मींदारी सब कुछ मुसलमानों के हाथ से चली गई। अब अगर ईमान भी चला जाए तो फिर क्या रह जाएगा?मैथिली के किन-किन रचनाकारों से आप प्रभावित हैं?
डॉ. भीमनाथ झा, जिन्होंने मिथिला मिहिर में रहने तक पत्र लिखकर व पारिश्रमिक देकर प्रोत्साहित किया। सोमदेव जी ने भी बराबर पत्रों के माध्यम से प्रोत्साहित किया। बेगूसराय के प्रथम ज़िलाधिकारी श्री मन्त्रेश्वर झा के आगमन से संपूर्ण ज़िला साहित्यमय हो गया। वे स्वयं तीन भाषा हिंदी मैथिली और अंग्रेजी के रचनाकार थे। उन्होंने मुझे काफ़ी प्रेरित किया। उनके आलोक से हिन्दी, उर्दू और मैथिली तीनों भाषाएं जगमगाईं। मैं श्री मन्त्रेश्वर झा का एहसानमंद हू्ं। दूर दृष्टि, विशाल दृष्टि, स्वच्छ हृदय अब स्वप्न सा लगता है। पर, उनकी जलाई हुई शमा आज भी रोशन है। वर्तमान ज़िलाधिकारी कीर्ति सिंह भी साहित्यानुरागी हैं। डॉ. जयकांत मिश्र ने निर्मोही का प्रकाशन कर और पटना में विशाल विमोचन समारोह कर मुझे उत्साहित किया। मैं स्वयं धूप, किरण, सुधांशु शेखर चौधरी, मोहन, हरिओम झा, आरसी प्रसाद सिंह, श्री कुमुद विद्यालंकार आदि के प्रति आभार प्रकट करते हुए सर्वश्री सुमन, अमर, मिथिला मिहिर परिवार, मैथिली और मिथिला दर्पण परिवार, वैदेही परिवार, डॉ. रामदेव, डॉ. सुरेश्वर झा, भाई मोहन भारद्वाज, शेफालिका वर्मा, डॉ. प्रवाध नाथ सिंह, डॉ. अनिमा सिंह, डॉ. नीता झा आदि-आदि का भी शुक्रगुज़ार हूं।
मैथिली वालों के लिए कोई संदेश? हिंदी और उर्दू के विषय में कुछ कहना है?
हिंदी अपनी छोटी बहनों का ख़्याल रखे। वह अपना विकास किसी भाषा के विनाश पर नहीं चाहे। उर्दू वाले, उर्दू को मुसलमानों के साथ न जोड़े। इससे उर्दू का बड़ा नु़क़सान होगा। मास्टर रामचन्द्र, पंडित चकबस्त महादेव ‘आसी‘, मनोहर सहाय, अनवर, जोश मलसियानी, फरा़क गोरखपुरी, जय नारायण राज, प्रेमचन्द्र, कृष्ण खादर, खुश्तर गिरामी, राजेन्द्र वेदी, सहर, डॉ. अमरनाथ झा आदि-आदि से भी उर्दू का रिश्ता है। जिन्हें गै़र मुस्लिम ही कहा जाएगा।
मैथिली वाले दूध, दही और मछली की तरह पत्र-पत्रिकाएं भी ख़रीद कर पढ़ें। दैनिक समाचार पत्र के बारे में भी सोचें। ‘अष्टम अुनच्छेद’में प्रविष्टि की हर मुमकीन कोशिश करें। पत्रिका युग की पुकार के अनुरुप हो। मैथिली बोलने में हीनता का अनुभव नहीं करें। साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित मैथिली पुस्तक को घर में रखें।
(4 मई, 1997 को राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्र कुबेर टाइम्स में प्रकाशित)