दीनानाथ सिंह ‘सुमित्र’
याद उन्हीं की आती है, जिनका ज़िंदगी भर का साथ रहता है। जो सुंदर, ख़ूबसूरत और कशिश पैदा करने वाला होता है, उसकी यादें दिल में समाई रहती है। ऐेसे लोग न रहकर भी बहुत कुछ दे जाते हैं। ऐसे ही ख़ूबसूरत, सुंदर और उम्दा इंसान थे-फ़ज़लुर रहमान हाशमी भाई जान। वे बड़े शायर थे। बहुत बड़े इंसान थे। मैंने ख़ुसरो, कबीर, ग़ालिब, मीर और इक़बाल की तस्ववुर की। ख़ूब की। लेकिन जब भाईजान को देखता था, उनसे मिलता था तो लगता था ऐसे ही होंगे शायरी के तमाम बादशाह। पठानी क़द। बड़ी-बड़ी अफ़साने भरी आंखें। बहुत चौड़ा माथा लिए एक बड़ी हस्ती वाली शख़्सियत थे। साइकिल तो उनकी महबूबा थी। फुलपैंट-कमीज़ पहनते थे। हर मौसम में जैकेट उनका प्यारा पहनावा होता था। और धूम्रपान तो उनके लिए माने आब ए ज़मज़म ही था।
बेगूसराय जनपद की बूढ़ी गंडक के दक्षिणी तट पर बसी बस्ती मुज़फ़रा में जन्में, हिन्दी स्कूल में पढ़े। मैट्रिक तक संस्कृत भाषा से जुड़े रहे। सो आगे चलकर संस्कृतज्ञ हो गए। हिन्दी तो उनकी फ़िज़ा में थी। आगे चलकर मैथिली भी उनकी महबूब बन गई। अरबी- फारसी और उर्दू तो उनके लहू के क़तरा-क़तरा में थी ही, शायरी भी उन्हें विरासत में मिली थी। शायर वही होता है, जो पूरी तरह संवेदनशील होता है। भाई जान बड़े ही संवेदनशील व्यक्ति थे।
उनसे नज़दीक़ी इसलिए बढ़ती गई क्योंकि मैं भी बचपन से ही तुकबंदी का रोग पाल रहा हूं। जब पढ़ाई पूरी करके मुंगेर और भागलपुर से मंझौल आ गया तो नौकरी में नहीं गया। बाप-दादाओं की दी हुई ज़मीन को जोतने का मन बना लिया। ज़िला के मुख्यालय के पत्र-पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं छपती रही। शहर और गांव में आयोजित कवि सम्मेलनों में आता-जाता रहा। रचना जैसी भी हो तरन्नुम में पेश करने के कारण पसंद की जाती रही।
भाईजान प्राय: सम्मेलनों का संचालन या अध्यक्षता करते थे। न जाने कितने शेर, संस्कृत के श्लोक एवं हिन्दी कविताओं की पंक्तियां उन्हें याद थी, जिसे देखकर और सुनकर आश्चर्य होता था। आवाज़ इतनी ख़ूबसूरत थी कि मुझे लगता था कि अमीन शयानी बोल रहे हैं। शायरी व्यंग्य वाली, ग़ज़ल जानदार-शानदार। और हिन्दी मैथिली की रचनाएं बड़ी मारक सुनाते थे।
जबतक लखनपट्टी गांव में शिक्षक रहे तो वे मेरे गांव मंझौल होकर ही रोज़ मुज़फ़रा से आते-जाते रहे। मंझौल बाज़ार में जब कभी मिल जाते थे तो किसी चाय दुकान में बिठाकर चाय तो पिलाते ही थे, पनामा सिगरेट भी पेश करते थे। जब मैं कहता था कि आज मैं ही चाय पिलाऊंगा तो वे मना कर देते थे। कहते थे कि चाय आपके दौलतख़ाने पर ही पिऊंगा। और खाना भी खाऊंगा। जब मैं कहता था कि चलिए तो कहते थे कि देर हो जाएगी घर पहुंचने में। आपकी भाभीजान ग़ुस्सा करेंगी। और यह कह कर वे मुज़फ़रा की ओर प्रस्थान कर जाते थे। यह क्रम बरसों तक चला। और सैकड़ों कप चाय और सिगरेट पी उनके साथ। जब उन्होंने मंझौल बाज़ार में होम्योपैथ की डिस्पेंसरी खोल दी तो ख़ूब भेंट होने लगी।
एक बार किसी काम से मैं मुज़फ़रा होकर गुज़र रहा तो चौक पर उन्होंने देख लिया। रोका और अपने दौलतख़ाने पर ले गए। फिर क्या था, ऐसा स्वागत-सत्कार किया कि उसे भुलाना मुश्किल है।
एक साधारण टीचर, बड़ा परिवार। लेकिन उनका दिल अपने परिवार से बड़ा था। अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। सचमुच बड़े इस मामले में कि सरकारी संस्थाओं से जुड़ाव था। इतने सामर्थ्यवान थे कि किसी भी कवि को बड़ा सम्मान दिलवा सकते थे। और दिलवाते भी थे। लेकिन उनकी आंखों में सहजता, सरलता थी, वो उन्हें हर वक्Þत फ़रिश्ता ही बनाए रखती थी। उनमें कोई गुमान या अहंकार नहीं था। शायद उन्हें हंसाने के सिवाय कुछ आता ही नहीं था। सचमुच वे देवदूत थे।
शिक्षक पद से अवकाश प्राप्ति के बाद मुज़फ़रा में ही स्थाई रूप से रहने लगे। उम्र और डॉक्टर ने साइकिल चलाने और धूम्रपान करने से मना कर दिया। लेकिन उन्होंने किसी भी बात नहीं मानी। जब कभी भी बेगसूराय आना होता था तो सारे इष्ट मित्रों से मिल लेना लाज़मी समझते थे। मित्र हिन्दू भी होते थे और मुसलमान भी। वे मुकम्मल ईमान वाले मुसलमान थे। किसी भी मुशायरा या कवि सम्मेलन में शामिल होेने में ना-नुकुर नहीं करते थे। पहले तो साइकिल से ही पहुंच जाते थे। बाद के दिनों में बस या मोटरसाइकिल से आते थे। उनकी उपस्थिति सितारों में चांद जैसी होती थी।
एक घटना याद आती है। एक साल एस एन आज़ाद साहब ने तीन दिनों के विराट सम्मेलन का आयोजन किया था। इसमें देश के शीर्षस्थ विचारकों और बुद्धिजीवियोंं ने शिरकत की थी। एक शाम कवि सम्मेलन के लिए गीतकार शिवनंदन सिंह जी को संयोजक बनाया गया था। लेकिन उनकी तबीयत अच्छी नहीं थी इसलिए सम्मेलन का संयोजक मुझे ही बना दिया गया था। मैंने सारे कवियों से संपर्क किया। मैंने दादा से फोन पर बात की। और कहा कि आना पड़ेगा और ना-नुकुर नहीं सुनुंगा। और औढ़रदानी ने हां कह दी। आयोजन के दिन मोबाइलिंग होती रही। चलने वाला हूं। चल चुका हूं। पहुंच रहा हूं। शहर आ गया हूं। लेकिन वे सात बजे शाम तक दिनकर भवन नहीं पहुंचे। सारे कवि मंचस्थ हो चुके थे। वे दीख ही नहीं रहे थे। माइक पर उनका नाम भी लिया। वे नहीं आए, मैं परेशान था। सम्मेलन अब समापन की ओर था। अचानक दादा की आवाज़ आई-, सुमित्र जी मैं जा रहा हूं। आवाज़ में ग़ुस्सा था। मैं अध्यक्षता कर रहा था। और अविनाश अशेष संचालन कर रहे थे। दोनों मंच से दौड़ते हुए उन्हें मुख्य द्वार पर पकड़ा। मैंने कहा, दादा आप पीछे बैठ गए। अब मेरी आंखें 67 साल की हो गई है। और पीछे रौशनी भी कम थी। आप लौट चलिए। अपनी शायरी से इस सम्मेलन को ऊंचाई दीजिए। आप अगर अपने छोटे भाई की बात नहीं मानेंगे तो मैं अपना सिर दीवार पर पटक कर जान दे दूंगा। कहा न देवता थे, फ़रिश्ता थे, लौट आए वे अपने दो-तीन शार्गिदों के साथ। और अपनी शायरी सुनाई। फरमाइशें भी हुईं। और उसे उन्होंने पूरी भी की। दिनकर भवन के पीछे भोजन का पंडाल था। हमलोगों ने साथ-साथ खाना भी खाया। यही उनके साथ मेरा अंतिम भोज था।
कई दिनों के बाद शिवनंदन बाबू के आवास पर पहुंचा तो उन्होंने कहा,- हाशमी साहब आए थे और कह रहे थे कि ग़लती मेरी ही थी। सुमित्र को सिर फोड़वाने की नौबत आ गई। सुमित्र बड़ा प्यारा है। मेरी दिल से दुआ है उसके लिए। यही आख़िरी दुआ थी।
अख़बार में पढ़ा-फ़रिश्ता बिदा हो गया। उसी शाम जनार्धन बाबू के मुक्त कथन कार्यालय में शोक सभा हुई। शहर के तमाम साहित्यधर्मी आए। उसमें मैं भी शामिल थी। सबने इस महान संत शायर की याद में अपनी-अपनी आंखें नम की। और पदचिह्नों पर चलने का संकल्प लिया।
मुज़फ़रा में उनके विद्वान बेटों ने श्रद्धांजलि सभा का विराट आयोजन किया। जिसमें पूरे जनपद के नामचीन हस्तियों ने शिरकत की। मैं भी उनकी समाधि की मिट्टी को सलाम करने गाड़ी से न जाकर साइकिल से ही गया। धूप में जलता हुआ बेगूसराय से मुज़फ़रा पहुंचा। साइकिल वाले को साइकिल का सलाम।
सभी लोगों ने उनके दरवाज़े पर मुंह जुठाया। तमीज़ और तहज़ीब के क्या कहने? छोटे-छोट बच्चे ताड़ के पंखे चला रहे थे। एक कौर और खाने के लिए सबसे शकील, आज़ाद, जाफ़री और लोग आग्रह पर आग्रह कर रहे थे। यही तो दुनिया है। जगत मिथ्या। लेकिन इस मिथ्या से बड़ा सत्य भी तो नहीं हो सकता है। फिर सबके सब उनकी समाधि की ओर गए जहां उन्हें सपूर्द ए ख़ाक़ किया गया था। वे अब नहीं हैं। लेकिन अपने पीछे अपनी तरह के औलादों की फौज छोड़कर गए हैं, जो अदब के क़दमों को चूमते रहने के लिए संकल्पित हैं।
एक गीत उनकी पुण्य स्मृति को समर्पित है-
ख़ुसरो को देखा है तुझमें
देखा है तुझमें ही कबीर
देते रहना, देते रहना
ख़ुश करता था तेरा कहना
देखा न कभी तुझ सा फ़क़ीर
बूढ़ी गंडक का जल पीना
कंदील बना जीवन जीना
रौशनियों से थे तुम अमीर
तेरा आना मस्ताना था
तेरा जाना मस्ताना था
खिंची मस्ती वाली लक़ीर